
नाचत श्याम मोरन संग मुदित ही श्याम रिहझावत,
ऐसी कोकिला अलावत पपैया देत स्वर ऐसो मेघ गरज मृदंग बजावत…
रसिक सिरोमणि स्वामी हरिदास का यह पद श्याम सुंदर की मयूर लीला को दर्शाता है। पाँच हजार वर्ष पहली द्वापर की लीलाओं के दर्शन आज भी ब्रज में जगह जगह देखने को मिलते हैं। यह मयूर लीला बरसाना के ब्रह्मांचल पर्वत पर स्थित प्राचीन लीला स्थली मोरकुटी पर श्रीराधारानी के जन्माभिषेक के दुसरे दिन हुई। लीला में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण मोर बन श्रीबृषभानु नन्दनी श्रीराधा के कर कमलों से मेवा, लड्डू आदि का भोग लगाते है और श्रीराधारानी की सखियाँ इस विचित्र मोर के रूप रंग का वर्णन और इस मोर की महिमा का गायन करती है। श्रीराधारानी द्वारा मोर भगवान को लड्डू भोग लगा हुआ भक्तों को प्रसाद लुटाते है। हजारों की संख्या में इस महाप्रसादी लड्डू को लूटने की होड भक्तों में लग जाती है। एक दुसरे पर हावी होते हुये लड्डू को लूटते हैं।
इस प्राचीन स्थल का प्राकट्य आज से साढ़े पांच सौ वर्ष पहले ब्रजाचार्य श्रील् नारायण भट्ट जी जो देवऋषि नारद मुनी के अवतार कहे जाते हैं ने किया था। जानकारों की माने तो पहले यहां सिर्फ रास चबूतरा था। इसके बाद जयपुर नरेश माधो सिंह ने उक्त चबूतरा पर एक कमरा बनवाया था। लेकिन आज प्राचीन स्थल पर एक भव्य मंदिर बना हुआ है। जहां आज भी राधाकृष्ण के मयूर चित्र की पूजा अर्चना होती है। वही मोरकुटी महन्त जयदेवदास बाबा मोर बिहारी जी के वहान बन मोर बिहारी ठाकुर को धारण कर रास में घुमाते है। और स्वयं मोर बिहारी जी को अपने हाथों से भोग लगाते हैं।
कहा जाता है कि एक बार राधारानी मोर देखने के लिए मोरकुटी पर पहुंची, लेकिन वहां एक भी मोर न दिखने पर वो मायूस हो गईं। वृषभानु नन्दनी श्रीराधा को उदास देख खुद भगवान श्रीकृष्ण मोर का रुप धारण कर नृत्य करते है। इस दौरान मोर को नाचता देख राधारानी उसे लड्डू खिलाती हैं तो तभी उनकी सखियां पहचान जाती है कि खुद श्याम सुंदर मयूर बन के आयौ है, कहती हैं राधा ने बुलायो कान्हा मोर बन आयो। प्राचीन मोरकुटी स्थल पर कई संतों ने तपस्या की। वहीं राधा बल्लभ सम्प्रदाय के भक्त कवि नागरी दास ने भी इस प्राचीन स्थल पर तपस्या की थी। आज यहाँ जयदेवदास बाबा महाराज रहते जो आज के दिन मोरकुटी लीला के साथ सन्तो का भण्डारा व भक्तों को मोर भगवान के प्रसादी लड्डू लुटाये जाते है।
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